बाल विवाह के खिलाफ लड़ने वाली महिला पर गूगल का डूडल

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रुखमाबाई ऐसे समय में मेडिकल की प्रैक्टिस करने वाली पहली महिला बनीं, जिस समय लड़कियों को स्कूल भेजने पर एक तरह से निषेध था. इतना ही नहीं उन्होंने खुद के बाल विवाह के खिलाफ भी जोरदार तरीके से आवाज उठाई थी.

बाल विवाह के खिलाफ लड़ने वाली महिला पर गूगल का डूडल

गूगल ने बुधवार को अपना डूडल औपनिवेशिक भारत में बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठाने वाली चिकित्सक रुखमाबाई राउत को समर्पित किया है. गूगल ने रुखमाबाई की 153वीं जयंती पर यह डूडल उन्हें समर्पित किया है. 

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रुखमाबाई ऐसे समय में मेडिकल की प्रैक्टिस करने वाली पहली महिला बनीं, जिस समय लड़कियों को स्कूल भेजने पर एक तरह से निषेध था. इतना ही नहीं उन्होंने खुद के बाल विवाह के खिलाफ भी जोरदार तरीके से आवाज उठाई थी.

गुगल ने अपने डूडल में डॉ. रुखमाबाई को गले में स्टेथोस्कोप लिए, बालों को बांधे और उनके सर के चारों और प्रकाश निकलते हुए दिखाया है. डूडल में दो नर्सो और तीन रोगियों को भी दिखाया गया है. 

22 नवंबर, 1864 को महराष्ट्र के एक बढ़ई परिवार में जन्मी रुखमाबाई के लिए इन उपलब्धियों को पाना बिल्कुल भी आसान नहीं था. 

उन्होंने अपने पिता जनार्दन पांडुरंग को केवल आठ वर्ष की उम्र में खो दिया और तीन वर्ष बाद यानी 11 वर्ष की अवस्था में दादाजी भीकाजी राउत नामक एक 19 वर्षीय नौजवान से उनकी शादी करा दी गई. पिता के देहांत के बाद रुखमाबाई की मां जयंती ने सखाराम अर्जुन नामक एक विधुर चिकित्सक से दोबारा विवाह कर लिया.

विवाह के बाद रुखमाबाई ने अपने पति के साथ रहने से इंकार कर दिया और कुछ वर्षो तक अपनी मां व सौतेले पिता के साथ रहीं. उन्होंने स्थानीय गिरजाघर के पुस्तकालय से किताबें लाकर पढ़ना शुरू कर दिया.

बाद में उनके पति राउत ने रुखमाबाई के परिवार के खिलाफ उसकी पत्नी को संरक्षण देने व अपने वैवाहिक अधिकार के लिए कानूनी लड़ाई शुरू कर दी. रुखमाबाई के सौतेले पिता ने उनके निर्णय का समर्थन किया था और बाद में यह विवाद भारत और ब्रिटिश राज में कानूनी इतिहास बन गया.

अपने पति के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार कर उन्होंने मीडिया के सहारे जनमत बनाना शुरू कर दिया और पूरे देश में बाल विवाह व महिलाओं के अधिकार पर एक नई बहस छेड़ दी. उन्होंने अपने सौतेले पिता की तरह ही डॉक्टर बनने की इच्छा जताई. 

रुखमाबाई के पति राउत के वैवाहिक अधिकार की मांग पर न्यायालय ने या तो उन्हें पति के साथ रहने या छह महीने जेल जाने का आदेश दिया.

रुखमाबाई ने जेल जाने का रास्ता चुना, जिससे हिंदू कानून के विरुद्ध ब्रिटिश कानून, प्राचीन रिवाज के विरुद्ध आधुनिक कानून, आंतरिक और बाह्य सुधार पर बहस छिड़ गई. इस विवाद में रुखमाबाई की तरफ से बाल गंगाधर तिलक और मैक्स मूलर ने बहस की थी.

कानूनी आदेश से निराश, रुखमाबाई ने सीधे महारानी विक्टोरिया को पत्र लिखने का निर्णय लिया और अपनी व्यथा बताई. जिसके बाद अपनी ताकत का इस्तेमाल कर महारानी विक्टोरिया ने अदालत के आदेश में हस्तक्षेप कर 1887 में उन्हें इस विवाह से अलग होने की इजाजत दी. 

डॉक्टर बनने की उनकी इच्छा पूरी करने में भारत ही नहीं, वरन विदेशों से भी उन्हें मदद मिली और 1889 में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वूमेन में पांच वर्षो तक पढ़ाई करने का मौका मिला.

वहां से 1894 में भारत वापस आने के बाद वह प्रैक्टिस करने वाली पहली महिला डॉक्टर बनीं और 15 सितंबर, 1955 को अपने निधन तक सामाजिक कार्य और लेखन करती रहीं.

IANS

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