Elon Musk की Starlink कंपनी सैटेलाइट इंटरनेट उपलब्ध करवाती है. हालांकि, भारत में अभी भी इसका इंतजार है. लेकिन, नई रिपोर्ट चिंता पैदा करने वाली है. रिपोर्ट की माने तो इससे पृथ्वी के ओजोन लेयर को खतरा हो गया है. Starlink ओजोन लेयर के लिए कैसे खतरनाक हो गया, आइए आपको पूरी बात बताते हैं.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, जनवरी 2025 में SpaceX के करीब 120 Starlink सैटेलाइट्स पृथ्वी के वायुमंडल में जल गए. रिपोर्ट्स के मुताबिक, हर दिन तीन से चार सैटेलाइट्स की री-एंट्री हुई, जिससे आर्टिफिशियल मीटियॉर शावर बने और ये दुनिया भर में कई लोगों को दिखाई दिए. ये शानदार शावर भले ही हानिरहित या आंखों को सुकून देने वाले लगें, लेकिन वैज्ञानिकों ने इनके पर्यावरण पर गंभीर खतरे को लेकर चेतावनी दी है.
सैटेलाइट्स की री-एंट्री ऊपरी वायुमंडल यानी मेसोस्फेयर में होती है और फिर ये स्ट्रैटोस्फेयर में पहुंचते हैं. जहां ओजोन लेयर मौजूद है जो पृथ्वी को हानिकारक UV रेडिएशन से बचाती है. सबसे बड़ी चिंता एल्यूमिनियम ऑक्साइड पार्टिकल्स की रिलीज को लेकर है. जो लंबे समय में ओजोन लेयर को नुकसान पहुंचा सकती है.
जब सैटेलाइट्स री-एंटर करते हैं और जलते हैं तो इनमें मौजूद कई धातुएं ऑक्सीडाइज हो जाती हैं. खास तौर पर एल्यूमिनियम. Starlink जैसे छोटे Low Earth Orbit (LEO) सैटेलाइट्स में एल्यूमिनियम की भरमार होती है. इनका लाइफटाइम करीब 5 साल का होता है.
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SpaceX की सैटेलाइट कॉन्स्टलेशन Starlink को ऑपरेट करने में सक्षम बनाती है. मई 2019 में पहली बार 60 सैटेलाइट्स की बैच लॉन्च हुई थी और तब से ये नियमित रूप से नीचे आ रहे हैं. European Space Agency (ESA) के मुताबिक, अंतरिक्ष में 28,000 से ज्यादा ऑब्जेक्ट्स हैं, जिनमें से ज्यादातर LEO में हैं. पिछले कुछ सालों में करीब 8,000 Starlink सैटेलाइट्स लॉन्च हुए हैं. ग्लोबल इंटरनेट कवरेज की बढ़ती डिमांड ने छोटे कम्युनिकेशन सैटेलाइट कॉन्स्टलेशन्स की तेज लॉन्चिंग को बढ़ावा दिया है.
SpaceX अभी लीडर है, जिसके पास 12,000 और Starlink सैटेलाइट्स लॉन्च करने की परमिशन है और कुल 42,000 की प्लानिंग है. Amazon और दूसरी कंपनियां भी 3,000 से 13,000 सैटेलाइट्स की कॉन्स्टलेशन्स प्लान कर रही हैं.
जनवरी 2025 में सबसे ज्यादा री-एंट्रीज देखी गईं. री-एंट्री के दौरान सैटेलाइट्स का एल्यूमिनियम, एल्यूमिनियम ऑक्साइड बनाता है, जो ओजोन लेयर के लिए खतरा है. LEO सैटेलाइट्स आम तौर पर पृथ्वी से 550 से 1,200 किमी ऊपर परिक्रमा करते हैं. इनका ऑपरेशनल पीरियड खत्म होने पर इन्हें डीकमिशन किया जाता है और पृथ्वी पर गिरने दिया जाता है. ये मैकेनिज्म स्पेस डेब्री को जमा होने से रोकने के लिए डिजाइन किया गया है, जिसे अभी तक स्पेस सस्टेनेबिलिटी के लिए जिम्मेदार कदम माना जाता है.
री-एंट्री के दौरान सैटेलाइट्स 27,000 किमी/घंटा की स्पीड से ट्रैवल करते हैं. इस हाई स्पीड पर घने वायुमंडल से टकराने से एरोडायनामिक फ्रिक्शन की वजह से जबरदस्त गर्मी पैदा होती है. इसके बाद सैटेलाइट लगभग तुरंत डिसइंटीग्रेट हो जाता है और इसके ज्यादातर कंपोनेंट्स वाष्प बन जाते हैं. ज्यादातर सैटेलाइट्स को पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से पहले पूरी तरह जलने के लिए डिजाइन किया जाता है ताकि लोगों या प्रॉपर्टी को कोई खतरा न हो.
लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक, यह जलने की प्रक्रिया ‘एनवायरनमेंटली न्यूट्रल’ नहीं है. इस दौरान सैटेलाइट्स के मेटल्स केमिकल ट्रांसफॉर्मेशन से गुजरते हैं. खास तौर पर एल्यूमिनियम, जो आम तौर पर सैटेलाइट की मास का 40% होता है. रिसर्च बताती है कि एक टिपिकल Starlink सैटेलाइट, जो 250 किलो का होता है. री-एंट्री पर 30 किलो एल्यूमिनियम ऑक्साइड पार्टिकल्स बनाता है. ये बड़े डेब्री नहीं, बल्कि माइक्रोस्कोपिक नैनोपार्टिकल्स हैं, जो ऊपरी वायुमंडल में सस्पेंड रहते हैं.
री-एंट्री आम तौर पर मेसोस्फेयर में होती है, जो पृथ्वी से 50 से 80 किमी ऊपर है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, बर्न-अप के दौरान निकलने वाले एल्यूमिनियम ऑक्साइड नैनोपार्टिकल्स इस रीजन में लंबे वक्त तक तैरते रहते हैं. फिर धीरे-धीरे नीचे की ओर आते हैं. वैज्ञानिकों की चिंता तब शुरू होती है, जब ये पार्टिकल्स स्ट्रैटोस्फेयर तक पहुंचते हैं, जहां ओजोन लेयर मौजूद है, जो हर जीव को हानिकारक अल्ट्रावायलेट रेडिएशन से बचाती है.
University of Southern California के डिपार्टमेंट ऑफ एस्ट्रोनॉटिकल इंजीनियरिंग के रिसर्चर्स के मुताबिक, एल्यूमिनियम ऑक्साइड क्लोरीन से जुड़ी केमिकल रिएक्शन्स के लिए कैटेलिस्ट का काम कर सकता है. ऐसा पहले chlorofluorocarbons (CFCs) से ओजोन डिप्लीशन में हुआ था. CFCs ओजोन मॉलिक्यूल्स को डायरेक्टली नष्ट कर सकते हैं.
एल्यूमिनियम ऑक्साइड पार्टिकल्स ओजोन को डायरेक्टली नहीं खाते. लेकिन रिसर्च के मुताबिक, ये कैटेलिस्ट की तरह काम करते हैं—यानी ऐसी सब्सटेंस जो खुद खर्च हुए बिना केमिकल रिएक्शन्स को सक्षम बनाती हैं. रिपोर्ट्स कहती हैं कि एक एल्यूमिनियम ऑक्साइड पार्टिकल दशकों तक हजारों ओजोन मॉलिक्यूल्स को नष्ट करने में योगदान दे सकता है.
हाल की कई स्टडीज ने सैटेलाइट री-एंट्री से वायुमंडल में एल्यूमिनियम ऑक्साइड की बढ़त की ओर इशारा किया है. फरवरी 2023 में NASA ने Alaska में 60,000 फीट की ऊंचाई पर टेस्ट फ्लाइट्स कीं. कलेक्ट किए गए एयरोसॉल्स की जांच से पता चला कि स्ट्रैटोस्फेयरिक सल्फ्यूरिक एसिड पार्टिकल्स का 10% हिस्सा है. यह 120 नैनोमीटर से बड़ा था, उसमें एल्यूमिनियम और दूसरी धातुएं थीं जो सैटेलाइट और रॉकेट री-एंट्री से निकली थीं.
इन टेस्ट्स ने कन्फर्म किया कि स्पेस हार्डवेयर वायुमंडल में एक डिटेक्टेबल केमिकल सिग्नेचर छोड़ रहा है. रिसर्चर्स का कहना है कि बढ़त की रफ्तार ज्यादा चिंताजनक है. University of Southern California के रिसर्चर्स ने बताया कि 2016 से 2022 के बीच वायुमंडल में एल्यूमिनियम ऑक्साइड आठ गुना बढ़ गया. यह वही पीरियड है, जब सैटेलाइट कॉन्स्टलेशन्स तेजी से बढ़े. 2022 में अकेले री-एंट्रीज से 41.7 मीट्रिक टन एल्यूमिनियम वायुमंडल में रिलीज हुआ, जो माइक्रोमीटियोरॉइड्स (16.6 मीट्रिक टन) से 30% ज्यादा है. अगर सैटेलाइट डिप्लॉयमेंट इसी रफ्तार से बढ़ा, तो एल्यूमिनियम ऑक्साइड रिलीज सालाना 360 मीट्रिक टन तक पहुंच सकता है—ये नेचुरल लेवल से 646% ज्यादा है.
मॉलिक्यूलर डायनामिक सिमुलेशन्स के आधार पर, मेसोस्फेयर में बने पार्टिकल्स को ओजोन लेयर तक पहुंचने में 20-30 साल लग सकते हैं. यानी आज की री-एंट्री का पर्यावरणीय असर दशकों बाद दिखेगा. वैज्ञानिकों का दावा है कि जब तक ओजोन डिप्लीशन मापा जा सकेगा, मेसोस्फेयर एल्यूमिनियम ऑक्साइड से भर चुका होगा, जो सालों तक ओजोन केमिस्ट्री को प्रभावित करेगा. मॉडलिंग स्टडी ने ये भी सुझाया कि एक्सट्रीम केस में ये पार्टिकल्स Antarctica के ऊपर हर साल 0.05% अतिरिक्त ओजोन लॉस का कारण बन सकते हैं. यह छोटा लगता है, लेकिन ओजोन लेयर की रिकवरी को डिले या रिवर्स कर सकता है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, US Federal Communications Commission (FCC) सैटेलाइट मेगा-कॉन्स्टलेशन्स को लाइसेंस देता है. लेकिन, री-एंट्री डेब्री या ओजोन डिप्लीशन को लेकर वह साफ कुछ नहीं कहता है. एक्सपर्ट्स के अनुसार, सैटेलाइट मैन्युफैक्चरर्स एल्यूमिनियम के अल्टरनेटिव्स ढूंढ सकते हैं. वे स्पेसक्राफ्ट को ग्रेवयार्ड ऑर्बिट्स में बूस्ट करने का डिजाइन बना सकते हैं. ग्रेवयार्ड ऑर्बिट वो ऑर्बिट है, जहां डीकमिशन्ड सैटेलाइट्स को रखा जाता है ताकि ऑपरेशनल सैटेलाइट्स और स्पेस डेब्री के बीच कोलिजन का रिस्क कम हो.